अजब सी कसक है
इस्त्री हुई कमीज पर
पुरानी सी मसक है
क्या सोचती होगी देखकर
उस पार झरोंको से
ये आस लगाए रहता हूं
दिया था, तुमने पता,
आज भी गलत
मैं, संभाले बैठा हूं
शहर के सब, अब यार हैं
देखते हर दिन मुझे
क्या ढूंढता और किस तरह
जाने किस गली मकां तेरा
निकलो तुम भी, कभी
ढूंढने मुझे, इक बार
जो जगह बतलाई थी
मिलूंगा वहीं हर बार
लो फिर शाम हो गई
आज भी छटा मे
अजब सी कसक है
इस्त्री हुई कमीज पर
पुरानी सी मसक है...
कश्यप द्विवेदी