न जाने कहां, है वो दिन
जब मिलने के बहाने, होते न थे
किस्से कुछ तेरे, कुछ मेरे
सुनने के वादे, पुराने न थे
ढूंढ रहा हुं फिर तुम्हें,
कि वक्त तुम निकाल दो
ऐतबार ही रहा है बाकी, जालिम
तेरी रजामंदी का, इन्तजार करुंगा
मैं तो हूं मुसाफिर
लौट कर फिर यहीं मिलुंगा
कश्यप द्विवेदी
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