कितना कुछ सुनना है, ये अब पता चला
जब खोया सा मैं, कल तुझसे मिला
कहने को, बातूनी तुम, हर किसी के लिए
कहूं कुछ तो शांत, सुर्ख होंठो को सिये
कहती है, कहते रहो.. अच्छा लिखते हो
कभी कभी ही तो अब, महफिल मे दिखते हो
कैसे बताऊं उसे, की कलम तो कब से खाली है
सूखी दवात से निकला हर शब्द जाली है
रुक कर पूछती, आज कुछ तो अलग बात है
इन बेरूखे शब्दों मे भी, शायर की मात है
मुस्कुरा कर, इस बार जो कहने को कुछ हुआ
तभी रोकते, नाजुक हाथों ने होंठो को छुआ
ले बाहों मे जैसे छुपा ही लिया था जिसने
फिर इक बार, आशिक कर दिया था उसने
अब ना कागज, कोई कलम, ना स्याही
सीधा कहता हूं कुछ, सलंग मिज़ाही
महफिल मे इक तुम ही तो हो, जिसे है परवाह
अब सुन कर थक गया ये मतलबी वाह वाह
चल दूर कही, किसी शाम इत्मीनान से मिलते हैं
फलक से कुछ रंग चुरा, इकदुजे मे भरते हैं
जिस शाम की सुबह आए तो ठीक
न आए तो, किसे शिक्वा,
इश्क का लिहाफ लिए बैठे, पलकें बंद
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