Saturday, March 29, 2025

कमीज की मसक

शाम मे आजकल
अजब सी कसक है

इस्त्री हुई कमीज पर
पुरानी सी मसक है

क्या सोचती होगी देखकर
उस पार झरोंको से
ये आस लगाए रहता हूं

दिया था, तुमने पता,
आज भी गलत
मैं, संभाले बैठा हूं

शहर के सब, अब यार हैं
देखते हर दिन मुझे

क्या ढूंढता और किस तरह
जाने किस गली मकां तेरा

निकलो तुम भी, कभी
ढूंढने मुझे, इक बार

जो जगह बतलाई थी
मिलूंगा वहीं हर बार

लो फिर शाम हो गई
आज भी छटा मे
अजब सी कसक है

इस्त्री हुई कमीज पर
पुरानी सी मसक है...



कश्यप द्विवेदी

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